आकाश में हम लोग कभी कभी देखते हैं कि एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए या पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का (meteor in hindi) कहते हैं।
उल्का या उल्का पिंड को बोलचाल की साधारण भाषा में 'टूटते हुए तारे' , अथवा 'लुका' कहते हैं।
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वायुमंडल में उल्काओं का जो अंश जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुंचता है उसे उल्कापिंड (meteorite facts in hindi) कहते है। प्रायः प्रत्येक रात को उल्काएँ अनगिनत संख्याओं में देखी जा सकती है, किंतु इनमें से धरती पर गिरने वालों की संख्या अत्यंत छोटी(अल्प) होती है।
वैज्ञानिक नजर से इनका महत्व बहुत अधिक है क्योंकि एक तो यह अति दुर्लभ होते हैं, दूसरे आकाश में विचरण करते हुए विभिन्न ग्रहों इत्यादि के संगठन और संरचना के ज्ञान के प्रत्यक्ष स्रोत केवल ये पिंड ही है।
उल्का का इतिहास ! History Of Meteorite
मनुष्य इन टूटते तारों से अत्यंत प्राचीन काल (समय) से परिचित था, लेकिन आधुनिक विज्ञान के विकासयुग मे मनुष्य को यह विश्वास करने में बहुत समय लगा कि भूतल पर पाए गए ये पिंड धरती पर आकाश से आए हैं।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में डी. ली नामक दार्शनिक ने इटली में अल्बारेतो स्थान पर गिरे हुए उल्कापिंड का वर्णन करते हुए यह विचार प्रकट किया कि वह खमंडल से टूटते हुए तारे के रूप में आया होगा, किंतु किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया।
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सन 1768 ईस्वी की बात है जब फादर बासिले ने फ्रांस में लुस नामक स्थान पर एक उल्का पिंड को धरती पर आते हुए स्वयं अपनी आंखों से देखा।
वर्ष 1769 में उसने पेरिस की विज्ञान की रॉयल अकैडमी के अधिवेशन में इस वृतांत पर एक लेख पढ़ा।
रॉयल अकैडमी ने वृतांत पर विश्वास न करते हुए घटना की जांच करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जिसके प्रतिवेदन में फादर बासिले के वृतांत को भ्रमात्मक बताते हुए यह मंतव्य व्यक्त (प्रकट) किया कि बिजली गिर जाने से पिंड का पृष्ठ कुछ इस प्रकार कांच सदृश हो गया था जिससे फादर बासिले को यह भ्रम हुआ कि यह पिंड धरती का अंश नहीं है।
जर्मनी दार्शनिक क्लाडनी ने सन 1794 में साइबीरिया से प्राप्त एक उल्का पिंड का अध्ययन करते हुए सिद्धांत प्रस्तावित किया कि ये पिंड खमंडल के प्रतिनिधि होते है।
1803 में फ्रांस में ला एगिल स्थान पर उल्कापिंडों की एक बहुत बड़ी वृष्टि हुई जिसमें अनगिनत छोटे-बड़े पत्थर गिरे और उनमें से प्रायः दो-तीन हजार इकट्ठे भी किए जा सके।
उल्कापिंड का वर्गीकरण ! Classification Of Meteorites
उल्कापिंड का वर्गीकरण (definition of meteorite) उनके संगठन के आधार पर किया जाता है। कुछ उल्कापिंड, लोहा, निकल और मिश्रधातुओं से बने होते हैं, तो कुछ पिंड सिलिकेट खनिजों से बने पत्थर होते हैं।
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> पहले वर्ग वाले उल्कापिंड को धात्विक उल्कापिंड कहते हैं।
> दूसरे वर्ग वाले उल्कापिंड को आश्मिक उल्कापिंड कहते हैं।
कुछ पिंड ऐसे भी होते हैं जिनमें धात्विक और आश्मिक पदार्थ समान मात्रा में पाए जाते हैं, उन्हें धात्वाश्मिक उल्कापिंड कहते हैं।
धात्विक और आश्मिक उल्कापिंडों के बीच सभी प्रकार की अन्तःस्थ जातियों के उल्कापिंड पाए जाते हैं जिससे पिंडों के वर्ग का निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है।
> उल्कापिंड को संरचना के आधार पर तीन भाग (वर्ग) में उपभेद किए जाते हैं।
1. आश्मिक पिंड - आश्मिक पिंड में दो मुख्य उपभेद है जिनमें से एक को कौंड्राइट और दूसरे को अकौंड्राइट कहते हैं।
> पहले उपवर्ग के पिंडों का मुख्य लक्षन यह होता है कि उनमें कुछ विशिष्ट वृत्ताकार दाने उपस्थित रहते हैं, जिन्हें कौंड्रयूल कहते हैं।
> जिन पिंडों में कौंड्रयूल उपस्थित नहीं रहते उन्हें अकौंड्राइट कहते हैं।
2. धात्विक उल्कापिंड - धात्विक उल्कापिंड के भी दो मुख्य उपभेद है जिन्हें अष्टानीक (आक्टाहीड्राइट) और षष्ठानिक (हेक्साहीड्राइट) कहते है।
इनके ये नाम पिंडों की अंतररचना व्यक्त करते है।
* पहले विभेद के पिंडों में धात्विक पदार्थ के प्लेट अष्टानीक आकर में और दूसरे में षष्ठीनिक आकर में विन्यस्त होते है। इस प्रकार की रचना को विडामनस्टेटर कहते है।
3. धात्वाश्मिक उल्कापिंड - धात्वाश्मिक उल्कापिंड में भी दो मुख्य उपवर्ग है जिन्हें क्रम के अनुसार पैलेसाइट और अर्धधात्विक कहते हैं।
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इनमे से पहले उपवर्ग के पिंडों का आश्मिक अंग मुख्यतः औलिविन खनिज से बना होता है जिसके स्फट प्रायः वृताकार होते है जो लौह-निकल धातुओं के एक तंत्र में समावृत रहते है।
अर्धधात्विक उल्कापिंड में मुख्यतः पाइरौक्सीन और अलप(कम) मात्रा में एनौथाईट फेल्सपार रहते है।
उल्कापिंड का संरचना ! Meteorite Structure
धात्विक औए आश्मिक अंगों की प्रधानता के आधार पर उल्कापिंड वर्गीकृत किए जाते हैं। किन्तु इन पिंडों में रसायनिक तत्वों और खनिजों के वितरण के संबंध में कोई सुनिश्चित आधार प्रतीत नहीं होता।
उल्का पिंड के 3 वर्ग के अतिरिक्त उनके अनेक उपवर्ग है जिनमे से प्रत्येक का अपना पृथक विशेष खनिज समुदाय है। अब तक 25 नए वर्गों का पता लगा है और प्रत्येक 2 वर्ष में एक नए उपवर्ग का पता लगता रहा है।
अब तक उल्का पिंडों में केवल 52 रसायनिक तत्वों की उपस्थिति प्रमाणित हुई है जिनके नाम इस प्रकार है -
ऑक्सीजन। गंधक। प्लैटिनम। लोहा। ऑर्गन गैलियम। फास्फोरस वंग (राँगा) आर्सेनिक जरमेनियम बेरियम वैनेडियम इंडियम जिरकोनियम बेरिलियम। सिलिकन। इरीडियम। टाइटेनियम। मैगनीज सीजियम। एंटिमनी टेलुरियम मैग्नीशियम सीरियम। एल्युमिनियम। ताम्र मौलिबडनेम सीसा। कार्बन थुलियम यशद (जस्ता)। सोडियम कैडमियम। नाइट्रोजन रजत (चाँदी) स्कैडियम। कैल्सियम। निकल। रुथेनियम। हाइड्रोजन। क्लोरीन। पौटेशियम लिथियम। हीलियम
इन 52 तत्वों में केवल 8 प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।
खनिज संरचना की दृष्टि से उल्का पिंडों और पृथ्वी में पाई गई शैल राशियों के लक्षणों में कई अंतर होते हैं। भूमंडलीय शैल राशियों में स्वतंत्र धातु रूप में लोहा तथा निकल अति दुर्लभ होते हैं, किंतु उल्का पिंडो में धातुएं शुद्ध रूप में बहुत प्रचुरता से तथा अनिवार्य पाई जाती है।
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इसके अलावा ऐसे कई खनिज है जो भूमंडलीय शैलों में नहीं पाए जाते, पर उल्का पिंडों में मिलते हैं, जिनमें प्रमुख है- ओल्डेमाइट (कैल्सियम का सल्फाइड) और श्राइबेरसाइट (लोहा और निकल का फास्फाइड)।
ये दोनों खनिज नमी और ऑक्सीजन की बहुलता में स्थायी नहीं होते और इसी कारण भूमंडलीय शैलो में नहीं मिलते।
आश्मिक उल्कापिंडों में पाइरोक्सिन और औलिविन की प्रचूरता एवं फेल्सपार का अभाव होता है, जिससे उनका संगठन भूमंडल की अतिभास्मिक (अल्ट्राबेसिक) शैलों के सदृश होता है।
उल्कापिंड की उत्पत्ति ! Origin Of Meteorite
उल्कापिंड की उत्पत्ति (meteorite origin) कैसे हुई ये विषय बहुत ही विवादस्पद है। इस बारे में अनेक मत समय-समय पर प्रस्तावित हुए हैं, जिनमें से कुछ में इन्हें पृथ्वी, चंद्रमा, सुर्य और धूमकेतु का अंश माना गया है।
एक और मान्यताओं के अनुसार इसकी उत्पत्ति ऐसे ग्रह से हुई जो अब पूर्णतया विनष्ट हो गया है।
इन विचारों से यह कल्पना की जाती है कि शुरू (आदि) में प्रायः मंगल के आकार का एक ग्रह रहा होगा, जो किसी दूसरे बड़े ग्रह के नजदीक आने पर या किसी दूसरे बड़े ग्रह से टकराने पर विनष्ट हो गया, जिससे अरबों संख्या में छोटे बड़े खंड बने जो उल्का रूप में खमंडल में विचरण कर रहे हैं।
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इन मतों के अनुसार धात्विक उल्का उस कल्पित ग्रह का केंद्रीय भाग तथा आश्मिक उल्का ऊपरी पृष्ठ (ऊपरी भाग) निरूपित करते हैं।
कुछ उल्का पिंडों में अष्टानीक रचना होती है जो साधारणतः 80° सेंटीग्रेड ताप पर नष्ट हो जाती है। ऐसा विश्वास है कि उस कल्पित ग्रह के विखंडन के समय अवश्य ही उसमें अधिकता ताप (गर्मी) उत्पन्न हुआ होगा।
फिर भी समझ में नही आता कि यह अष्टानीक रचना विनष्ट होने से कैसे बची। इसी प्रकार संका यह बनी रहती है कि अकॉन्ड्राइट आश्मिक उल्का में लोहा कहां से आया और कॉन्ड्राइट आश्मिक ऊलक में कॉन्ड्रयूल कैसे बने।
एक मत यह भी प्रस्तावित किया गया है कि उल्का पिंडों की उत्पत्ति ग्रहों के साथ-साथ हुई हो या सौर मंडल एवं समस्त खमंडलीय पदार्थों की उत्पत्ति उल्का पिंडों से हुई हो।
उल्कापिंड का भारतीय संग्रहालय ! Indian Museum Of Meteorite
उल्का पिंड का एक बहुत बड़ा संग्रहालय भारत के कोलकाता में भारतीय संग्रहालय जिसका नाम अजायबघर है, के भूवैज्ञानिक विभाग में प्रदर्शित है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था के नियमों के अनुसार देश में कहीं भी गिरा हुआ उल्कापिंड सरकारी संपत्ति होता है। इस संग्रहालय में 468 विभिन्न उल्कापिंड निरूपित है।
आप सब का अनोखा ज्ञान पे बहुत बहुत स्वागत है.