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शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह और उनकी कहानी

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शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह और उनकी कहानी
28 सितंबर,1907-23 मार्च,1931

                                                   


भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर,1907 को पंजाब के जिला लायलपुर के बावली या बंगा नामक गाँव (वर्त्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। इनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था। भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। इनके पांच भाई और तीन बहनें थी। जिसमें सबसे बड़े भाई जगत सिंह की मृत्यु 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही हो गई थी। 

भगत सिंह का परिवार पहले से ही देशभक्ति के लिए जाना जाता था। इनके पिता के दो भाई सरदार अजित सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह थे। भगत सिंह के जन्म के समय इनके पिता और दोनों चाचा जेल में बंद थे। यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगत सिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया।

भगत सिंह का पारिवारिक परिपेक्ष्य 


भगत सिंह का पूरा परिवार देश भक्ति के रंग में रंग हुआ था। इनके दादा जी सरदार अर्जुन देव अंग्रेजो के कट्टर विरोधी थे। अर्जुन देव के तीन पुत्र थे (सरदार किशन सिंह, सरदार अजित सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह)। इन तीनों में भी देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत थे। भगत सिंह के चाचा सरदार अजित सिंह ने 1905 के बंग-भंग के विरोध में लाला लाजपत राय के साथ मिलकर पंजाब में जन विरोध आंदोलन का संचालन किया।


1907 में, 1818 के तीसरे रेग्युलेशन ऐक्ट के विरोध में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई। जिसे दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार ने कड़े कदम उठाये और लाला लाजपत राय और इनके चाचा अजित सिंह को जेल में डाल दिया गया। अजित सिंह को बिना मुक़दमे चलाये रंगून जेल में भेज दिया गया। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह जनता के बीच में विरोधी भाषण दीये तो अंग्रेजों ने इन दोनों को भी जेल में डाल दिया।


भगत सिंह के दादा, पिता और चाचा ही नहीं इनकी दादी जय कौर भी बहुत बहादुर औरत थी। वो सूफी संत अम्बा प्रसाद, जो उस समय के भारत के अग्रणी राष्ट्रवादियों में से एक थे, की बहुत बड़ी समर्थक थीं। एक बार जब सूफी संत अम्बा प्रसाद जी सरदार अर्जुन सिंह के घर पर रुके हुए थे उसी दौरान पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आ गयी किन्तु भगत सिंह की दादी जय कौर ने बड़ी चतुराई से उन्हें बचा लिया। ये बात अलग है कि भगत सिंह इन सबसे भी दो कदम आगे चले गये।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

भगत सिंह जब चार-पाँच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वे अपने साथियों में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके मित्र उन्हें अनेक बार कंधों पर बिठाकर घर तक छोड़ने आते थे। भगत सिंह को स्कूल के तांग कमरों में बैठना अच्छा नही लगता था। वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल जाते थे। वे खुले मैदानों की तरह आजाद होना चाहते थे। प्राइमरी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात भगत सिंह को 1916-17 में लाहौर के डी. ए. वी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय औए सूफी संत अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ।


13 अप्रैल 1919, में रॉलेट ऐक्ट के विरोध में सम्पूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इन्ही दिनों जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ। इस कांड का समाचार सुनकर भगत सिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे देश पर मर-मिटने वाले सहीदों के प्रति श्रधांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देश वासियों के अपमान का बदला लेना है।

1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थीं। इसी कॉलेज में भगत सिंह ने भी प्रवेश लिया। पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना, फूलने-फलने लगी। इसी कॉलेज में यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डा सिंह आदि क्रांतिकारियों से सम्पर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगत सिंह ने देशभक्ति पूर्ण नाटकों में अभिनय किया। ये नाटक थे - राणा प्रताप, भारत दुर्दशा और सम्राट चंद्रगुप्त।


शादी के लिए इनकार


सन 1923 में जब उन्होंने एफ.ए. परीक्षा पास की। भगत सिंह अपनी दादी के बहुत लाडले थे। उनके भाई (जगत सिंह) की अकाल मृत्यु होने के बाद उनका ये प्रेम मोह में बदल गया। उनके कहने पर सरदार किशन सिंह ने पड़ोस के गाँव के एक अमीर सिख परिवार में शादी तय कर दी। जिस दिन लड़की वाले देखने के लिए आये उस दिन वो बहुत खुश थे। मेहमानों के साथ शिष्टता का व्यवहार किया और उन्हें लाहौर तक विदा भी कर के आये। किन्तु वापस आने पर शादी के लिए साफ मना कर दिया। पिता द्वारा कारण पूछने पर तरह-तरह के बहाने बनाये। कहा जब तक की में अपने पैरों पर खड़ा ना हो जाऊं तब तक शादी नही करूँगा, अभी मेरी उम्र कम है और मैं कम-से-कम मैट्रिक पास से ही शादी करूंगा। उनके इस तरह के बहानों को सुनकर किशन सिंह ने झल्लाकर कहा कि तुम्हारी शादी होगी और ये फैशला आखिरी फैसला है। उनकी सगाई तय हो गयी। परंतु भगत सिंह तो भारत माँ की बेड़ियों को काट देने के लिए उद्यत था। विवाह उन्हें अपने मार्ग में बाधा लगी। भगत सिंह सगाई वाले दिन अपने पिता के नाम पत्र छोड़कर लाहौर से कानपुर भाग आये।

                                उस पत्र में लिखें उनके शब्द निम्न है-


पूज्य पिताजी,
  नमस्ते।
 मेरी जिंदगी मकसदे आला (उच्च उद्देश्य) यानी आज़ादी-ए-हिन्द के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी खाहशत बायसे कशिश नही है।

आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था,तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवित के वक़्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक़्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।

                                                                        आपका ताबेदार
                                                                           भगत सिंह


सन 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की। इस भेंट के माध्यम से वे वटुकेश्वर दत्त और चंद्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए। वटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बंगला सीखी। हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन के सदस्य बने। अब भगत सिंह पूर्ण रूप से क्रांतिकारी कार्यो तथा देश के सेवा कार्यों में संलग्न हो गए थे। जिस समय भगत सिंह का चंद्रशेखर आज़ाद से संपर्क हुआ, तब मानो दो उल्का पिंड, ज्वालामुखी, देशभक्त आत्मबलिदानी एक हो गए हो,ऐसा प्रतीत होने लगा।


नौजवान भारत सभा का गठन (मार्च 1926)


भगत सिंह ने लाहौर लौट कर साल(वर्ष) 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगंध लेनी पड़ती थीं कि वह देश के हितों को अपनी जाती तथा अपने धर्म के हितों से बढ़कर मानेगा। यह सभा हिन्दुओ,मुसलमानों तथा अछूतों के छुआछूत, जात-पाँत, खान-पान आदि संकीर्ण विचारों को मिटाने के लिए संयुक्त भोजों का आयोजन भी करती थी। उस सभा के प्रमुख सूत्राधार भगवतीचरण और भगत सिंह थें। भगत सिंह जनरल सेक्रेट्री थे और भगवतीचरण प्रोपेगैंडा सेक्रेट्री बने।


भगत सिंह की जेल यात्रा(29 जुलाई 1927) और रिहाई के बाद का जीवन


भगत सिंह कहीं बाहर से लौटें थे और अमृतसर स्टेशन पर उतरे थे। कुछ कदम आगे बढ़े ही थे तभी उन्होंने देखा कि एक सिपाही उनका पीछा कर रहा है। उन्होंने अपने कदम बढ़ा दिये तो उसने भी चाल बढ़ा दी। भगत सिंह दौड़े और दोनों के बीच आंख मिचौली शुरू हो गयी। दौड़ते हुये एक मकान की बोर्ड पर उनकी नज़र गयी। उस पर लिखा था- सरदार शार्दूली सिंह एडवाकेट। भगत सिंह उस मकान के भीतर चले गये। वकील साहब मेज पर बैठे फ़ाइल देख रहे थे। भगत ने उन्हें सारी स्थिती बताई और अपनी पिस्तौल निकाल कर मेज पर रख दी। वकील साहब ने पिस्तौल मेज के भीतर डाला और नौकर को नाश्ता कराने का आदेश दिया। कुछ देर बाद पुलिस वाला भी वहां पहुंच गया और वकील साहब से पूछा कि क्या उन्होंने किसी भागते हुये सिख नवयुवक को देख है। वकील साहब ने कीर्ति दफ़्तर की ओर इशारा कर दिया। पूरे दिन भगत सिंह वकील साहब के घर पर ही रहे और रात को छहराटा स्टेशन से लाहौर पहुँचे।


जब वो ताँगे से घर जा रहे थे उसी समय पुलिस ने ताँगे को घेरकर भगत को गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का नाम कुछ और आधार कुछ और था। लाहौर में दशहरे के मेले में किसी ने बम फेंक दिया था, जिससे 10-12 आदमियों की मृत्यु हो गयी और 50 से अधिक घायल हो गये थे। इसे दशहरा बम कांड कहा गया और इसी अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने यह अफवाह फैला दी कि यह बम क्रांतिकारियों ने फेंका है। देखने पर यह दशहरा बम कांड गिरफ्तारी थी पर हक़ीक़त में इसका मकसद काकोरी केस के फरारों और दूसरे सम्बंधित क्रांतिकारियों की जानकारी हासिल करना था। पुलिस यातनाओं और हजारों कोशिश के बाद भी भगत ने उन्हें कुछ भी नही बताया।


भगत 15 दिन लाहौर की जेल में रहे फिर उन्हें बिर्सटल की जेल में भेंज दिया। सरदार किशन सिंह की कानूनी कार्यवाहियों के कारण पुलिस भगत को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने को बाध्य हुई। कुछ सप्ताह बाद ही भगत सिंह से कुछ न उगलवा सकने के कारण उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया। भगत सिंह की जमानत राशि 60 हजार थी जो उस समय की अखबारों की सुर्खियों में रही। जमानत पर आने के बाद उन्होंने कोई ऐसा काम नही किया कि उनकी जमानत खतरे में आये और उनके परिवार पर कोई आंच आये। उनके लिए उनके पिता ने लाहौर के पास एक डेरी खुलवा दी। भगत सिंह अब डेरी का काम देखने लगे और साथ ही साथ गोपनीय रूप से क्रांतिकारी गतिविधियों को भी अंजाम देते रहे। डेरी दिन में डेरी होती और रात में क्रांतिकारियों के अड्डा।

भगत सिंह जमानत में जकड़े हुये थे। इस जकड़न को तोड़ने के लिये सरकार को अर्जियां देते रहते की "या तो भगत पर मुकदमा चलाओ या फिर जमानत समाप्त करो"। बोधराज द्वारा पंजाब कौंसिल में भगत के जमानत के संबंध में सवाल उठाया गया, डॉगोपीचंद भार्गव का भी इसी विषय पर नोटिस पर सरकार ने भगत की जमानत करने की घोषणा कर दी। 8 और 9 सितंबर,1928 को क्रांतिकारियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खण्डहरों में हुई। भगत सिंह के परामर्श पर 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' रखा गया।


सन 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जाँच के लिए फरवरी 1928 में 'साइमन कमीशन'बम्बई पहुँचा। जगह-जगह पर साइमन कमीशन के विरुद्ध विरोध प्रकट किया गया। 30 अक्टूबर,1928 को कमीशन लाहौर पँहुचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था। भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतने व्यापक को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था उसने लाठी चार्ज करवा दिया। लाला लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए। भगत सिंह यह सब अपनी आंखों से देख रहे थे। उस समय लाला लाजपतराय ने कहा था:"मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।" 17 नवम्बर,1928 को लाला जी का देहांत हो गया।


लाला लाजपतराय की मौत का बदला


लाला जी की मौत से सारा देश उत्तेजित हो उठा और हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद और जयगोपाल को लाला जी की हत्या का बदला लेने का कार्य सौंपा। इन क्रांतिकारियों ने ठीक एक महीनें बाद 17 दिसम्बर,1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर साण्डर्स को मारकर लाला जी की मौत का बदला लिया।


बम बनाने की कला को सीखा


साण्डर्स वध के बाद संगठन को चंदा मिलना प्रारंभ हो गया था। अब हिंसप्रश को ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो बम बनाने की विद्या कुशल हो। उसी समय कलकत्ता में भगत सिंह का परिचय यतीन्द्रदास हुआ जो बम बनाने की कला में कुशल थे। कलकत्ता में जब   बम बनाने के लिये प्रयोग होने वाली गनकाटन बनाने का कार्य कार्नवालिस स्ट्रीट में आर्य समाज मंदीर की सबसे ऊंची कोठारी में किया गया। उस समय यह कला सीखने वालो में फणीन्द्र घोष, कमलनाथ तिवारी, विजय और भगत सिंह मौजूद थे। कलकत्ता में बम बनाना सीखने के बाद समान को दो टूकरियों में आगरा भेजा गया। वहां पे बम बनाने की कला को सीखने के लिए सुखदेव और कुन्दल लाल को भी बुलाया गया।


असेम्बली में बम फेंकने की योजना और इसका क्रियान्वयन


असेम्बली में बम फेंकने की योजना भगत सिंह के मन में तब आ गई जब वह अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकते हुए कलकत्ता से आगरा पंहुचे। 'हिंदुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केंद्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुइ जिसमें 'पब्लिक सेफ़्टी बिल' तथा 'डिस्प्यूट्स बिल' पर चर्चा हुई। इनका विरोध करने के लिए भगत सिंह ने केंद्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा। साथ ही यह भी कहा कि बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी व्यक्ति के जीवन को कोई हानि न हो। इसके बाद क्रांतिकारी स्वंय को गिरफ्तार करा दें। इस कार्य को कारने के लिए भगत सिंह अड़ गए कि वह स्वयं यह कार्य करेंगे। आज़ाद इसके विरुद्ध थे,परंतु विवश होकर आज़ाद को भगत सिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा।


भगत सिंह के सहायक बने बटुकेश्वर दत्त। 8 अप्रैल,1929 को दोनों निश्चय समय पर असेम्बली में पंहुचे। जैसे ही बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए असेम्बली का अध्य्क्ष उठा। भगत सिंह ने बम फेंका, फिर दूसरा। दिनों ने नारा लगाया 'इन्क़लाब जिंदाबाद....... साम्राज्यवाद का नाश हो'


इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके जिनमे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंकने के उपरांत इन्होंने अपने आप को गिरफ्तार कराया। इनकी गिरफ्तारी के उपरांत अनेक क्रांतिकारियों  को पकड़ लिया गया, जिनमें सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल शामिल थे।



भगत और दत्त की गिरफ्तारी के  बाद कानूनी कार्यवाही और सजा


भगत सिंह को यह अच्छी तरह मालूम था कि अब अंग्रेज उनके साथ कैसा सलूक करेंगें। गिरफ्तारी के बाद उन्होंने 24 अप्रैल,1929 को अपने पिता को पत्र लिखा। 3 मई,1929 को उनकी भेंट अपने पिता से हुई। उनके पिता के साथ आसफ अली वकील साहब भी आये थे। भगत सिंह ने आसफ अली जी से कुछ कानून पूंछें और उस समय की बातचीत समाप्त हो गयीं।



भगत सिंह ने मुकदमे की पैरवी खुद करने की ठानी 7 मई,1929 को मि. पूल जो कि उस समय एडिशनल मजिस्ट्रेट थे कि अदालत में जेल में ही सुनवाई प्रारम्भ हुई। किन्तु भगत सिंह ने दृढ़ता से कहा कि हम अपना सेशन जज के सामने ही रखेंगे। इसी कारण उनका केस भारतीय कानून की धारा 3 के अधीन सेशन जज मि. मिल्टन की अदालत में भेजा गया और दिल्ली जेल में सेशन जज के अधीन 4 जून,1929 को मुक़दमा शुरू हुआ। 10 जून,1929 को केस की सुनवाई समाप्त हो गयी और 12 जून को सेशन जज ने 41 पृष्ठ का फैसला दिया जिसमें दोनों अभियुक्तों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया।


आजीवन कारावास के बाद भगत सिंह को मिंयावाली जेल और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल में भेज दिया गया। ये दोनों देश भक्त अपनी बात को और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे इसलिए उन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध लाहौर हाई कोर्ट में अपील की। यहाँ भगत सिंह ने पूनः अपना भाषण दिया। 13 जनवरी,1930 को हाई कोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया।


भगत सिंह द्वारा जेल में भूख हड़ताल(15 जून,1929-5 अक्टूबर,1929)


जेल में भगत सिंह और दत्त को यूरोपियन क्लास में रखा गया। वहाँ भगत के साथ अच्छा व्यवहार हुआ,लेकिन भगत सभी के लिए जीने वाले व्यक्तियों में से एक थे। वहां जेल में उन्होंने भारतीय कैदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार और भेदभाव के विरोध में 15 जून,1929 को भूख हड़ताल की।


उन्होंने अपनी एक जेल से दूसरी जेल में बदली के संदर्भ में 17 जून,1929 को मिंयावाली जेल के अधिकारी को पत्र भी लिखा। उनकी यह मांग कानूनी थी अतः जून के अंतिम सप्ताह में उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में बदल दिया गया। उस समय वह भूख हड़ताल पे थे। भूख के कारण उनकी अवस्था ऐसी हो गई थी कि कोठरी पर पहुंचाने के लिए स्ट्रैचर का सहारा लिया गया।


10 जुलाई,1929 को लाहौर के मजिस्ट्रेट श्री कृष्ण की अदालत में आरंभिक कार्यवाही शुरू हो गयी। उस सुनवाई में भगत और दत्त को स्ट्रैचर पर लाया गया। इसे देख कर पूरे देश में हाहाकार मच गया। अपने साथियों की सहानुभूति में बोस्टर्ल की जेल में साथी अभियुक्तों ने अनशन कि घोषणा कर दी। यतीन्द्र नाथ दास 4 दिन बाद भूख हड़ताल में शामिल हुये थे।


14 जुलाई,1929 को भगत सिंह ने अपनी माँगो का एक पत्र भारत सरकार के गृह सदस्यों को भेंजा। सरकार के लिए भूख हड़ताल उसके सम्मान की बात बन गयी थी। इधर भगत का भी हर दिन 5 पौंड वजन घटता जा रहा था। 2 सिंतबर,1929 में सरकार ने जेल इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की। 13 सिंतबर को भगत सिंह के साथ-साथ पूरा देश दर्द से तड़प गया और आंसुओ से भींग गया जब भगत सिंह के मित्र और सहयोगी यतीन्द्र नाथ दास भूख हड़ताल में शहीद हो गये।


यतीन्द्र नाथ दास के शहीद होने पर पूरे देश में आक्रोश की भावना उमड़ रही थी। सरकार और देश के नेता दोनों ही अपने-अपने तरीकों से इस भूख हड़ताल को बन्द कराना चाहते थे। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा नियुक्त जेल कमेटी ने अपनी सिफारिशें सरकार के पास भेंज दी। भगत सिंह को अंदेशा हो गया था कि उनकी मांगों को बहुत हद तक मान लिया जायेगा।


भगत सिंह ने कहा -" हम इस शर्त पर भूख हड़ताल तोड़ने को तैयार है कि हम सबको एक साथ ऐसा करने का अवसर दिया जाये"। सरकार ये बात मान गयी। 5 अक्टूबर,1929 को भगत सिंह ने 144 दिन की ऐतिहासिक हड़ताल अपने साथियों के साथ दाल फुलका खाकर भूख हड़ताल समाप्त की।

भगत सिंह को फाँसी की सजा

अब अंग्रेज शासकों ने नए तरीकों द्वारा भगत सिंह तथा बट्टूकेश्वर दत्त को फंसाने का निश्चय किया। इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया। 5 मई,1930 को पूंछ हाउस लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई। इसी बीच आजाद ने भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा जो बम का परीक्षण कर रहे थे, वे घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी।


अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही। 26 अगस्त,1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया था। अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129,302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर,1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी, कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा ,गया प्रसाद, किशोरीलाल और महावीर सिंह को आजीवन काला पानी की सजा मिली। कुंदन लाल को 7 साल और प्रेमदत्त को 3 साल की सजा सुनाई गयी।


लाहौर में धारा 144 लगा दी गई इस निर्णय के विरुद्ध नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई, परंतु यह अपील 10 जनवरी,1931 को रद्द कर दी गई। प्रिवी परिषद मे अपील रद्द किये जाने पर न केवल भारत मे ही, बल्कि विदेशों से भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाईगांधी और इर्विन समझौते के समय प्रत्येक भारतवासी,कांग्रेसी, गैर-कांग्रेसी सबकी नजर उनकी ओर लगी हुई थी,परन्तु तत्कालीन परिस्थिति यही दर्शाती है कि गांधीजी ने इस ओर कोई विशेष कोशिश नही की।


गांधीजी के इस व्यवहार के प्रति आजाद हिन्द फौज के जनरल मोहन सिंह ने लिखा-
"वह(गांधीजी) भगत सिंह को फाँसी चढ़ने से बचा सकते थे, यदि उन्होंने इस राष्ट्रीय वीर की रिहाई को एक राष्ट्रीय प्रश्न बना लिया होता तो पूरा राष्ट्र कुर्वानी के लिए तैयार था......."।


पिस्तौल और पुस्तक भगत सिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे। जेल के बंदी जीवन मे जब पिस्तौल छीन ली जाती थी,तब पुस्तकें पढ़कर ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थी-आत्मकथा दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर),आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाज का आदर्श),स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।


जेल में पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते वे मस्ती में झूम उठते और शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते- 

                                 

        'मेरा रंग दे बसन्ती चोला।

इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला

मेरा रंग दे बसंती चोला

यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला।
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला।
मेरा रंग दे बसंती चोला।



फांसी का समय प्रातः काल 24 मार्च,1931 को निर्धारित हुआ था,पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे,उन्हें कानून के विरुद्ध एक दिन पहले, प्रातः काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी देने का निश्चय किया। जेल के अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगत सिंह को लेने उनकी कोठारी में पंहुचा तो उसने कहा,"सरदार जी। फांसी का वक़्त हो गया है,आप तैयार हो जाइए।" उस समय भगत सिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढ़ने में तल्लीन थे।

उन्होंने कहा,"ठहरो! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है" और फिर वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए। सुखदेव और राजगुरू को भी फाँसी स्थल पर लाया गया। भगत सिंह ने अपनी दाईं भूजा राजगुरु की बाईं भुजा में डाल ली और बाईं भुजा सुखदेव कु दाईं भुजा में। क्षण भर तीनो रुकें और तब वे यह गुनगुनाते हुए फाँसी पर झूल गए- 


'दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत।मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।


परंतु ब्रिटिश सरकार ने इन देशभक्तों पर किए जाने वाले अत्याचार का अभी खत्मा नही हुआ था। उन्होंने इन देशभक्तों के मृत शरीर को एक बार फिर अपमानित करना चाहा। उन्होंने उनके शरीर को टूकडों में विभाजित किया। उनमे अभी भी जेल के मुख्य द्वार से बाहर लाने की हिम्मत नही थी। वे शरीर के उन हिस्सों को बोरियों में भरकर रातों-रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलज के किनारे जा पहुंचे। मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी गई,परन्तु यह आँधी की तरह फिरोजपुर से लाहौर सीघ्र पंहुच गई।

अंग्रेज फौजियों ने जब देखा कि हजारों लोग मशालें लिए उनकी और आ रहे है तो वे वहां से भाग गए,तब देशभक्तों ने उनके शरीर को विधिवत दाह संस्कार किया। 


                   'तुम जिंदा हो और हमेशा जिंदा रहोगे'

"किसी ने सच ही कहा है,सुधार बूढ़े आदमी नही कर सकते। वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते है। सुधार तो होते है युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से,जिनको भयभीत होना आता ही नही और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते है"। ~ भगत सिंह

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आप सब का अनोखा ज्ञान पे बहुत बहुत स्वागत है.