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महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा का क्या हुआ? - anokhagyan.in

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अश्वत्थामा की कहानी

यह कहानी महाभारत युद्ध से बहुत समय पूर्व की है जब गुरु द्रोणाचार्य पुत्र की प्राप्ति के लिए अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहाँ गुरु द्रोण ने तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिंग है उस शिवलिंग का गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की।

अश्वत्थामा कौन था?

गुरु द्रोण और माता कृपि की तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। भगवान शिव के वरदान के कुछ वक़्त बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म के वक़्त उस बालक के कण्ठ से घोड़े के जैसे हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे उस बालक का नाम अश्वत्थामा पड़ा।

जन्म के समय से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। ये मणि अश्वत्थामा को दानव, दैत्य, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।

अश्वत्थामा
नाम: अश्वत्थामा
अन्य नाम: द्रोण पुत्र
संदर्भ ग्रंथ: महाभारत पुराण
मुख्य शस्त्र: धनुष बाण
माता-पिता: पिता द्रोणाचार्य, माता क्रपी 

अश्वत्थामा की कहानी?

महाभारत युद्ध के वक़्त गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों पक्ष का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शस्त्र व शास्त्र विद्या में निपूण थे। महाभारत के युद्ध में पिता-पुत्र ने सक्रिय भाग लिया था।

महाभारत युद्ध के वक़्त ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त अश्वत्थामा ने शत्रुंजय, द्रुपदकुमार, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। 

अश्वत्थामा ने ही कुंतीभोज के दस पुत्रों का भी वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के वक़्त पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया।

पांडवों की सेना की हार देख़कर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा। भगवान श्रीकृष्ण की योजना के तहत कुरुक्षेत्र में चारों तरफ यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया"

यह बात जब गुरु द्रोणाचार्य को पता चली तब जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही, तब युधिष्ठिर ने उन्हें जवाब दिया- "अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी", युधिष्ठिर ने "परन्तु हाथी" इतने धीरे स्वर में कहा कि जिसे गुरु द्रोण अच्छी तरह उस वाक्य को सुन नही पाए और युधिष्ठिर झूठ बोलने से भी बच गए।

अश्वत्थामा की मृत्यु की झूठी खबर से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं कि "परन्तु हाथी" को इतने धीरे स्वर में बोला जाए। जब ये बात युधिष्ठिर गुरु द्रोण को बता ही रहे थे तब श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए।

गुरु द्रोण ने अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन अपने शास्त्रों का त्याग कर दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य को निहत्ता जानकर ध्रुपद पुत्र द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की विजय होने लगी।

इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीम की गदा से कौरवों पक्ष का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीम ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने राजा और अपने परम मित्र दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया।

दुर्योधन पानी को बांधने की कला जानता था। जिस तालाब के पास दुर्योधन और भीम का  गदा युद्ध चल रहा था उसी तालाब में दुर्योधन घुस गया और पानी को बांधकर छुप गया। दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पांडवों की जीत पक्की हो गई थी सभी पांडव खेमे के लोग जीत की खुशी में मना रहे थे।

अश्वत्थामा ने अपने पिता द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके आगे सारी पांडव सेना ने हथियार डाल दिया था। युद्ध के पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। 

इतने से भी मन न भरा तो अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी उतरा के गर्भ में पल रहे बच्चे पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया।

जिससे उस बालक की गर्भ में ही मौत हो गई। इस निर्मम हत्या को देख भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा को अमर होने का अभिशाप दे दिया। भगवान कृष्ण ने अपने जीवन भर के पूण्य से उतरा के गर्भ के बच्चे को जीवित किये। और उस बच्चे का नाम परीक्षित पड़ा।

अश्वत्थामा का रहस्य?

भगवान कृष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैं। श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया। श्राप के बाद अश्वत्थामा छुप कर पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुए वीर महारथियों को मार डाला।

केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि उसके द्वारा किये हुए यह कार्य दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा।

अपने पुत्रों के हत्या से दुःखी द्रौपदी विलाप करने लगी। द्रौपदी की विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला।

श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिल रही थी तब अश्वत्थामा ने भय के कारण अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।

उस अति प्रचण्ड अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं।

आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

तब भगवान श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर छोड़ा है ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्योंकि ब्रह्मास्त्र का अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”

श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर अर्जुन ने भी तत्काल अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया।

श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”

श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। 

उसने गुरुपुत्र अश्वत्थामा को नमस्कार किया और उसे बंधनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं।

अश्वत्थामा का वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। माता कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”

द्रौपदी और अश्वत्थामा

द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है।

अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मस्तिष्क से मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया।

श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने अश्वत्थामा को उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।

अश्वत्थामा कहाँ है?

कलियुग में जीवन श्रीकृष्ण का श्राप श्रीकृष्ण ने कहा की ये जो तुम्हारे माथे पर मणि है इसको तुम निकाल दो अब तुम इसको धारण करने के लायक नहीं रहे। मणि अश्वत्थामा के जन्म से उसके माथे पर लगी हुई थी जो उसका सुरक्षा कवच था।

इतना सुनते ही अश्वत्थामा घबरा उठा और भागने की कोशिश करने लगा। लेकिन श्रीकृष्ण ने जबरदस्ती उसकी मणि निकाल ली और अश्वत्थामा को श्राप दे दिया की वह समय के अंत तक इस पृथ्वी पर बेसहारा विचरण करता रहेगा और कोई उसको खाने को अन्न तक नहीं देगा।

तब से लेकर आज तक अश्वत्थामा इस पृथ्वी पर घूम रहे हैं। जगह-जगह उनको देखे जाने के किस्से सुनने को मिलते हैं। ऐसा कहा जाता है की मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर असीरगढ़ का किला है इस किले में स्थित शिव मंदिर में अश्वत्थामा को पूजा करते हुए कई बार देखा गया है।

वहां के लोगों का ऐसा कहना है की अश्वत्थामा आज भी इस मंदिर में पूजा करने आते हैं। अश्वत्थामा पूजा करने से पूर्व किले में स्थित तालाब में पहले नहाते हैं फिर भगवान शिव की पूजा करते है। कभी-कभी अश्वत्थामा का मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर के गौरीघाट (नर्मदा नदी) के किनारे भी देखे जाने का उल्लेख मिलता है।

वहां के लोगों का ऐसा कहना है की अश्वत्थामा यहां अपने माथे से निकल रहे रक्त के दर्द से कराहते हैं। तथा स्थानीय लोगों से वो तेल और हल्दी मंगाते हैं आने सिर में लगाने के लिए। कुछ लोगों के अनुसार अश्वत्थामा को मध्यप्रदेश के जंगलो में भी भटकते हुए देखा गया है।

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